Monday, 16 October 2017

भरम में किसान, भंवर में भावांतर... न काहू से बैर...राघवेंद्र सिंह


भरम में किसान, भंवर में भावांतर...

न काहू से बैर...राघवेंद्र सिंह

नया इंडिया। से साभार

जिसमें सहनशीलता ज्यादा होती है प्रकृति भी शायद उसी की परीक्षा ज्यादा लेती है। सदियों से किसान के साथ ऐसा ही होता आ रहा है। भविष्य में भले ही चंद्रमा पर शहर बस जाएं मगर भारत का अन्नदाता भगवान, भाग्य, प्रकृति और सरकार के ही भरोसे रहेगा... समझने-समझाने के लिए एक और बात है कि डाइरेक्टर फिल्म में उसे ही सबसे कठिन रोल देता है जो सबसे अच्छा एक्टर होता है। अब पता नहीं किसान में सहनशीलता है इसलिये उसकी परीक्षा अधिक कठोर होती है या ऐसा महानायक है कि सरकारें अन्न भी उससे पैदा करवाती हैं और मारती भी उसे ही हंै। लेकिन सबको किसान की चिंता भी खूब रहती है क्योंकि उन्हें पता है गर वो मर गया तो दूसरे भी जी नहीं पाएंगे। राजनीतिक दल उसके बिना सत्ता में नहीं आ पाएंगे, कृषि सूखी तो सेंसेक्स भी नीचे आ जाएगा, बाजार विधवा हो जाएंगे, वित्त व्यवस्था चौपट हो जाएगी। इसलिए फसलों की जड़ नहीं पत्तों पर पानी देने और आईसीयू में वेंटीलेटर पर जा रहे किसानों को बचाने और भावांतर जैसी योजना से हंसाने की कोशिशें हो रही हैैं। किसानों के लिये भावांतर योजना समझना कठिन हो रहा है उसे यह जलेबी नहीं बल्कि इमरती की तरह उलझी लगती है। हालांकि भाजपा और सरकार इसे सरल शब्दों में समझा रही है कि सरकार के न्यूनतम  समर्थन मूल्य और बाजार बिक्री मूल्य के अंतर को सरकार किसानों के खाते में जमा कराएगी। इसके लिए किसानों को अपना पंजीयन सरकारी पोर्टल पर कराना होगा। यह अपील भाजपा प्रवक्ता राजो मालवीय यू टयूब पर किसानों से कर रही हैैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों को रुझान बढ़ाने के लिए पंजीयन की अंतिम (15 अक्टूबर 17) के पूर्व कमान अपने हाथ में ले ली है। मगर फसल बीमा राशि और तुवर की सरकारी खरीद में दिल जला के बैठा किसान भावांतर का छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रहा है।
करीब 98 लाख  किसान वाले राज्य में केवल दस फीसदी अन्नदाता ने भावांतर पर भरोसा किया। इसकी भारी विफलता को देखते हुए सीएम की अगुवाई में पूरा मंत्रिमंडल, भाजपा संगठन किसानों को भावांतर योजना में समाधिस्थ करने में जुट गए हैैं। बड़े विज्ञापन, सोशल मीडिया का व्यापक इस्तेमाल, गांव-गांव बैठकों का दौर चरम पर है। 15 अक्टूबर से 15 दिसंबर तक भावांतर योजना लागू रहेगी। लेकिन भीड़ एकत्र करने के लिए यंत्र में तब्दील हो रहे दलों और भरोसे का सौदा करने वाली सरकारों को कौन समझाए कि विश्वास कठिनाई से हासिल होता है और एक बार टूटा तो फिर भरोसा पाना नामुमकिन भले ही न हो मुश्किल जरूर होता है।
फसल बीमा योजना में पांच-पांच रुपये के मिले चेकों ने सरकार योजना पर उठते विश्वास को तार-तार कर दिया है। इसके पहले पांच हजार पचास रु. प्रति क्विंटल तुवर खरीदी में जिस बेरहमी से अधिकारियों ने किसानों के सेंपल फेल किए उसे पीडि़त भूले नहीं हैैं। जिस तुवर के सेंपल होता उसे किसान बाजार में व्यापारी को औने-पौने दाम पर बेचता फिर बाद में वही तुवर प्रति बोरा कमीशन देने के बाद पांच हजार पचास रु. की प्रति क्विंटल की दर से सरकारी खरीद में चली जाती। इसके बाद प्याज खरीदी में किसान ने अपनी बदलहाली और व्यापारी अधिकारी गठजोड़ की दिवाली देखी। सड़क पर फिंकती आठ रु. प्रति किलो में खरीद के बाद सड़ती प्याज अब पचास रु. प्रति किलो बिकती भी देख रहा है। हाल ही में अवर्षा के कारण प्रभावित जिलों में टीकमगढ़ के किसान आंदोलन में अन्नदाता का थानों में निर्वस्त्र करना, पीटना सब कुछ हुआ। इसके पहले अगर मई की बात करें तो मंदसौर किसान आंदोलन में सात किसानों की मौत के जख्म हर दिन सरकारी तंत्र हरा कर रहा है। स्मरण होगा एक दफा विदेश यात्रा से भोपाल आए मुख्यमंत्री बारिश ओला पीडि़तों के बीच हवाई अड्डे से सीधे गांव में गए थे। खेतों में रोते किसानों के आंसुओं में अपनी भावनाएं डूबोते हुए राहत देने का ऐलान किया था। मगर अधिकारियों ने ऐसे नियम-शर्तें तय कर दिए कि शायद ही कोई किसान राहत पाने के दायरे में आ रहा था। हल्ला हुआ तब मुख्यमंत्री ने हस्तक्षेप से थोड़ी बात बनी। मगर बेतुके नियम बानाने वालों का बाल बांका नहीं हुआ। ऐसे ही फसल बीमा योजना में किसान हितों की चिंता नहीं करने वालों का कुछ नहीं बिगड़ा। किसान अगर नेताओं के माई बाप हैैं तो उन्हें आत्महत्या  करने की स्थिति में पहुंचाने वाले सुरक्षित क्यों हैैं? ऐसे उद्योग जगत या कर्मचारी जगत में हो सकता है क्या...?

दांव पर साख
म.प्र. में भावांतर योजना के फेल होने के कारण राज्य सरकार की साख ही दांव पर लग गई है। सीधे-सीधे किसानों के लिए इसके नियम जलेबी नहीं बल्कि इमरती की भांति उलझे से हैैं।  किसान नेता केदार सिरोही कहते हैैं, सरकारों ने किसानों को बार-बार धोखा देकर उसे मौत के मुंह में पहुंचा दिया है। भावांतर में खरीफ में उत्पादित होने वाली आठ जिंसों को शामिल किया है। लेकिन जिलों के हिसाब से देखें तो ये हर जिले में 2-3 फसल से ज्यादा नहीं आएंगी। वे कहते हैैं, भावांतर में उनके हरदा जिले में उड़द का प्रति एकड़  40 किलोग्राम उत्पादन माना था। विरोध करने पर उसे पौैने दो क्विंटल किया गया। ऐसी औसत मूल्य के लिये पड़ोसी राज्य राजस्थान की कोटा महाराष्ट्र की अकोला मंडी को शामिल किया गया। वे कहते हैैं, यदि इन दोनों मंडियों में 32 सौ रु. क्विंटल सोयाबीन बिका और म.प्र. में औसत 28 सौ रु. तो समझ लीजिए किसानों को भावांतर में कुछ नहीं पाएगा। उनका कहना है, वैसे भी 60-70 प्रतिशत किसान 15 अक्टूबर से पहले अपनी फसल बेच चुका है। उसे भावांतर का लाभ नहीं मिलेगा। यह सच्चाई किसान जानता है। उसे सरकार की नीयत पता है इस नाते उसका भरोसा उठ चुका है। किसानों का कहना है कि भावांतर योजना में अगर लाभ देने हैं तो बाजार में 15 अक्टूबर के पहले जो जरूरतमंद किसान अपनी उपज बेच चुका है, उसे भी शामिल करें। नहीं तो यह योजना महज हाथी के दांत की तरह मानी जाएगी। ये सिर्फ दिखाने भर के हैैं... ऐसे में हम तो सिर्फ यही कहेंगे...

अाज के दाैर में अालाेक श्रीवास्तव की यह कविता एकदम माैजूं है...
तू जब राह से भटकेगा, मैैं बोलूंगा
मुझको कुछ भी खटकेगा, मैैं बोलूंगा।
सच का लहजा थोड़ा टेढ़ा होता है,
जहां-जहां तू झटकेगा, मैैं बोलूंगा।
अवसरवादी साथी सा व्यवहार न कर,
हाथ अगर तू झटकेगा, मैैं बोलूंगा
विश्वासों का शीशा नाजुक होता है,
ये शीशा जब चटकेगा, मैैं बोलूंगा
मीठे-मीठे वादों के सब बाग दिखा,
वादों से जब भटकेगा, मैैं बोलूंगा।
(आलोक श्रीवास्तव के फेसबुक बाल से)

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